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उदास आसमां,
पत्तों की आड़ से,
अपनी मेहबूबा ज़मीं को तकता है,
रुख़सती का सलाम करता है,
अब शहर की जानिब जाना होगा,
दो जून की रोटी कमाने,
न जाने कब फ़िर दीदार हो,
सुना है की शहरों में अब पत्तों के चिलमन नहीं होते,
ऊपर से तकने पर बस ऊँची इमारतें दिखती हैं.
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अनिरुद्ध (http://पत्तों की आड़ से,
अपनी मेहबूबा ज़मीं को तकता है,
रुख़सती का सलाम करता है,
अब शहर की जानिब जाना होगा,
दो जून की रोटी कमाने,
न जाने कब फ़िर दीदार हो,
सुना है की शहरों में अब पत्तों के चिलमन नहीं होते,
ऊपर से तकने पर बस ऊँची इमारतें दिखती हैं.
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![2015-04-03_04-09-07](https://farm8.staticflickr.com/7634/17017619461_ff2c375234_o.jpg)